Perspective : खतरे में ग्रहस्थ आश्रम – विभा मित्तल

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Perspective: खतरे में ग्रहस्थ आश्रम

सदियों से उपेक्षित स्त्री ,पुरुष की हर ज्यादती (Perspective) को सहन कर, आजीवन उसको अपना मालिक (तन-मन का स्वामी) समझ चुप रहती आयी है |क्योंकि बचपन से”माँ- बाप के यहाँ से डोली में जाना , अर्थी पर निकलना “जैसे वाहियात उपदेश (Perspective) सुनकर जो बड़ी हुयी थी|

मनोचिकित्सक का भी मानना है कि यदि एक लम्बे अर्से तक किसी शोषित व्यक्ति को अपराधी कहकर बुलाया जाता है, तो वह व्यक्ति खुद को (Perspective) अपराधी समझने लगता है ,जैसे कठोर पाषाण भी अपने ऊपर निरंतर गिरने वाली पानी की बूंद के अस्तित्व को नहीं नकार पाता है उसी प्रकार स्त्री ने भी सदियों से अपने लिए प्रयोग किया गया’ दासी ‘ शब्द ग्राह कर लिया था और पुरुष को अपना मालिकाना हक़ सोंप दिया था |

इक्कीसवीं सदी की स्त्री आर्थिक रूप से सक्षमता हासिल कर रही है और धनोपार्जन कर पारिवारिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रही है तो क्यों वह पुरुष की ज्यादतियों को सहन करेगी और क्यों अपने को पुरुष से कमतर आंका जाना |
पुरुष समूची स्त्री जाति पर सिर्फ इसलिए ही प्रभुत्व जमाता है कि वह परिवार का अर्थ प्रदाता है|

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वह भूल गया है ग्रहस्थ में स्त्री की सहभागिता को| भूल गया है कि आदिम युग में स्त्री भी शिकार कर सकती थी, पर उन असभ्य प्राणियों ने अपने ग्रहस्थ के दायित्वों को बखूबी बांट लिया | चूंकि स्त्री’ जननी’ थी और शिशुओं को मां की ज्यादा आवश्यकता थी बनिस्बत पुरुष के , तो स्त्री ने अपना कर्मक्षेत्र घर चुना और पुरुष ने घर से बाहर उपार्जन को अपना कर्म बनाया|

सभ्यताओं के विकास के साथ पुरुष ने स्त्री की इस सहभागिता को उसकी अक्षमता बना डाला | विकास के साथ, विकास का मूल भूत कारक ‘धन ‘सर्वोपरि हो गया, और धनोपार्जन करने वाले सर्वोच्च सत्ता प्राप्त कर गये |स्त्री नगण्य होती चली गई क्योंकि वह धनोपार्जन में असमर्थ थी या यों कहें कि बना दी गई थी |पितृसत्तात्मक समाज के दबदबे को कायम रखने के लिए स्त्री को जबरन संस्कारों के नाम पर, घर के दायरे में कैद कर उसके अस्तित्व को नकारने की कोशिश की गई |

पुरुष की सोच बन गई कि स्त्री उस पर आश्रित है तो उसको पुरुष की हर उचित अनुचित बातों को शिरोधार्य करना होगा |फिर चाहे वो मदिरा पान करे या परस्त्री गामी हो जाय, आखिर वो उसका स्वामी जो है, और स्त्री अपने हरेक रूप में पुरुष के कोप भाजन से बचने के लिए इस दासत्व को ही अपनी नियति मान सब कुछ सहन करती आयी |

परन्तु अब समाज में आई शैक्षिक और वैचारिक (Perspective) क्रांति ने इक्कीसवीं सदी की नारी के अंदर अदम्य साहस का प्रादुर्भाव किया है |उसने ठान लिया है कि वो पुरुष की दासता हरगिज़ स्वीकार नहीं करेगी |वो इस विचार धारा की समर्थक है कि जिस पुरुष से उसका विवाह बंधन जुड़ा है वो उसका जीवन साथी है मालिक नहीं और मैं उसकी जीवन संगिनी हूँ दासी नहीं | दौनों को एक दूसरे का भरपूर सहयोग करते हुए जीवन पथ पर आगे बढते जाना है |

पर यहाँ कुछ भ्रांतियां (Perspective)भी पैदा हो गईं हैं |हर क्षेत्र में पुरुष का सहयोग करते-करते स्त्री मदिरा पान के क्षेत्र में भी अपना हस्तक्षेप करने लगी है जो कदापि उचित नहीं है |शोध हमें इस बात की जानकारी देते हैं कि स्त्री में अल्कोहल बर्दाश्त करने की क्षमता पुरुष के मुकाबले कम होती है |ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा लाखों स्त्रियों पर किये गए एक सर्वे में यह सत्य सामने आया है कि अल्कोहल की एक यूनिट भी स्त्री में ब्रेस्ट कैंसर के खतरे को 7.1 प्रतिशत तक बढ़ा देती है |तो फिर अपने को नशे का गुलाम बना कौन सी तरक्की की राह खोज रही है वह?

Perspective

शायद जीवन संगिनी के सही अर्थ को भूल रही है स्त्री| जिसका वास्तविक अर्थ है -सुख दुःख में पति का साथ निभाना और कभी पति के कदम गलत राह पकड़ लें तो उसकी पथ प्रदर्शक बन सही राह दिखाना |नकि खुद भी अंधे बन पति का साथ देते जाना | ये साथ देना नहीं अपितु विवेक हीनता का परिचायक है | पर यह कहते हुए मुझे बहुत दुख होता है कि स्त्री की इस दशा के लिए पुरुष ही काफी हद तक जिम्मेदार है |

काश! पुरुष ने नारी की सहन शीलता (Perspective) को उसकी मजबूरी समझ उस पर शारीरिक और मानसिक अत्याचार न किये होते, उसके गृहकार्य को उचित सम्मान दिया होता, उसके जननी बनने के पश्चात हुए शारीरिक बदलावों को उपेक्षा की दृष्टि से न देखकर उसे उचित मान सम्मान और प्रेम दिया होता तो स्त्री कभी घर की दहलीज़ पार कर आर्थिक क्षेत्र में अपने आप को साबित करने का कड़ा कदम न उठाती |

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अब अगर पुरुष को(Perspective) आगे की पीढ़ियों को सम्हालना है या अपनी भूल सुधार कर समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभानी है तो उसे स्त्री की भावनाओं का सम्मान करना सीखना होगा | बचपन से लड़का होने के कारण जिस श्रेष्ठता के भाव के साथ उसे पाला गया था उसे मन से (Perspective) निकाल कर स्त्री को अपने समानांतर रखकर चलना होगा | (ध्यान रहे, स्त्री धनोपार्जन में सक्षम हो सकती है पर पुरुष जननी नहीं बन सकता |) नहीं तो बहुत देर हो जायेगी |

हम अपनी आँखों से अपने बच्चों के घर बिखरते देखेंगे |स्त्री स्वच्छंद हो, पुरुष के हर कार्य में बराबरी का दर्जा प्राप्त करने के लिए, पुरुष की तरह (Perspective) ग़र पतन के रास्ते चल पड़ी तो विश्व का विध्वंस अवश्यंभावी है और इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं कि वह अपना यौवनाकर्षण बनाये रखने और बच्चों की परवरिश के बंधनों से बचने के लिए उनकी पैदाइश से भी गुरेज़ करने लगे |तब कैसे ये सृष्टि बचेगी?? जब पुरुष को जन्म देकर दूसरे पुरुष को पिता का गौरव दिलाने वाली नारी जननी बनने से इन्कार कर देगी !!! हमें स्त्री के कोमल मन को सम्हालना होगा |

अब हम आर्थिक क्षेत्र में स्त्री के बढ़ते हुए कदमों को तो पीछे नहीं खींच सकते पर उसके सदियों से कुचले हुए आत्मसम्मान को मान देते हुए, पारिवारिक दायित्वों में अपनी भागीदारी निभाते हुए, धनोपार्जन का कारक होने के दंभ को (Perspective) पीछे छोड़ते हुए, एक जननी को तहे दिल से प्रेम करते हुए ही हम आने वाली पीढ़ियों को पतन के रास्ते पर जाने से बचाकर समाज को एक स्वस्थ माहौल दे सकते हैं और ग्रहस्थाश्रम जैसी प्राचीन और महत्वपूर्ण व्यवस्था को बचाने में सफल हो सकते हैं||

-विभा मित्तल (हाथरस)

 

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One Comment on “Perspective : खतरे में ग्रहस्थ आश्रम – विभा मित्तल”

  1. Rakhee Gupta says:

    इसमें एक बात ग़लत है मेरे perspective से कि नारी अपने को साबित करने के लिए बाहर जाकर काम करती है…एक तरफ़ तो equaility की बात करते हो और एक तरफ़ ऐसी दक़ियानूसी सोच…. पहले भी औरत बाहर काम करती थीं… आज भी खेतो में काम करती हैं तो क्या और किसको क्या साबित करना चाहती हैं…दोनो पुरुष और स्त्री को मिलकर काम करना पड़ेगा चाहे बाहर या घर तभी हमारा घर और देश विकसित बनेगा….
    बाक़ी का लेख अच्छा है…

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